Skandapurāṇa Adhyāya 167: R and A recensions, sub-chapter 1 E-text generated on February 22, 2017 from the original TeX files of: Peter C. Bisschop, Early Śaivism and the Skandapurāṇa. Sects and Centres. Groningen: Egbert Forsten, 2006. SPra167.1.0010: व्यास उवाच| SPra167.1.0011: दिवि वा भुवि वा यानि देवस्य मुनिपुंगव| SPra167.1.0012: पुण्यान्यायतनानीह तानि मे कथयानघ|| १|| SPra167.1.0021: दिदृक्षुर्यत्फलं वापि तेषां विन्दति दर्शनात्| SPra167.1.0022: तन्मे सर्वजनस्यार्थे कथयानघ सुव्रत|| २|| SPra167.1.0031: वेदव्यासेन विधिना कुमारः स महाकविः| SPra167.1.0032: इत्येवं वै पुनः पृष्टो विमृष्य च मनोगतम्|| ३|| SPra167.1.0040: सनत्कुमार उवाच| SPra167.1.0041: कालिनन्दन भो व्यास अहो प्रश्नकुतूहलम्| SPra167.1.0042: समत्वं मम तुभ्यं च तृतीयो नावयोः समः|| ४|| SPra167.1.0051: एकदा तु महेशेन सहास्ते गिरिराजजा| SPra167.1.0052: मन्दरस्य शिलापट्टे पाण्डूकमलसंस्थिते|| ५|| SPra167.1.0061: तमभ्यर्च्य पतिं भक्त्या भक्तकोटीवरप्रदम्| SPra167.1.0062: एतमेवार्थमुद्दिश्य पप्रच्छ रुचिरा पतिम्|| ६|| SPra167.1.0071: यथा स तस्याः पृच्छन्त्या भार्यायाः शिष्टवान्हरः| SPra167.1.0072: पाराशर्य तथा व्यास ममापि वदतः शृणु|| ७|| SPra167.1.0081: आदित्यबन्धनं नाम कूटं हिमवतः शुभम्| SPra167.1.0082: आदित्यसमवर्णाभं तत्रादित्येन कालिज|| ८|| SPra167.1.0091: पशुभर्तुरुमाभर्तुर्बालादित्यसमप्रभम्| SPra167.1.0092: †मुखाल्लिङ्गं† शुभं लिङ्गं स्थापितं तिमिरारिणा|| ९|| SPra167.1.0101: देवो वा पूर्वदेवो वा यस्तं पश्यति पावनम्| SPra167.1.0102: तस्य पूर्णस्य तपसा को ऽर्थश्च तपसा पुनः|| १०|| SPra167.1.0111: महदन्यद्धिमवतः कूटं मुकुटवत्स्थितम्| SPra167.1.0112: नौबन्धनमिति ख्यातं देवलोके क्षितावपि|| ११|| SPra167.1.0121: लोकसंप्लावने प्राप्ते मनुना यत्र संयुता| SPra167.1.0122: नौर्मत्स्यवचनाद्वत्स †ययाती नाम सुन्दरम्†|| १२|| SPra167.1.0131: यत्र रुद्राश्च साध्याश्च विश्वेदेवास्तथाश्विनौ| SPra167.1.0132: मरुतः सिद्धगन्धर्वाः सयक्षोरगराक्षसाः|| १३|| SPra167.1.0141: मुनयश्च महात्मानः सर्वे च ऋषिसत्तमाः| SPra167.1.0142: संध्यामन्वास्य सततं स्तुवन्त्यार्तिहरं हरम्|| १४|| SPra167.1.0151: मेखलावलयोन्मिश्रो नूपुरारावसंकरः | SPra167.1.0152: श्रूयते ऽप्सरसां तत्र गायन्तीनां रवो महान्|| १५|| SPra167.1.0161: मनुना तत्र तल्लिङ्गं जाम्बूनदमयं महत्| SPra167.1.0162: स्थापितं वै स्थपतिना भक्तेन वृषभध्वजे|| १६|| SPra167.1.0171: ये चैतदभिगच्छन्ति लिङ्गं चैतद्दिदृक्षवः| SPra167.1.0172: धर्मश्चैव भवेत्तेषामधर्मश्च विनश्यति|| १७|| SPra167.1.0181: ये तदायतनं दिव्यमभिगच्छन्ति वै द्विज| SPra167.1.0182: न ते च्यवन्ते कालेषु च्यवमानेषु वारिषु|| १८|| SPra167.1.0191: हेमसोमोद्भवं नाम कूटमस्ति हिमाद्रिजम्| SPra167.1.0192: पुण्यमायतनं तत्र च्यवनेनाभिनिर्मितम्|| १९|| SPra167.1.0201: यत्र भास्करवर्णाभा मुनयस्तपसान्विताः| SPra167.1.0202: वसन्ति नियमैस्तीव्रैः कर्षयन्तः शरीरकान्|| २०|| SPra167.1.0211: च्यवनायतनं ये वै अभियान्ति दिदृक्षवः| SPra167.1.0212: ते ऽश्वमेधसहस्रस्य फलं प्रापुश्च देवताः|| २१|| SPra167.1.0221: उदये तूदयाभासे गिरौ गिरिवरेश्वरे| SPra167.1.0222: सत्यो नाम ह्रदः स्फीतः स्फीतपद्मसमावृतः|| २२|| SPra167.1.0231: यत्र ते मुनयः सत्याः सत्यानलरविप्रभाः| SPra167.1.0232: धारयन्ति धृताचारा आशीर्भिः सरथं रविम्|| २३|| SPra167.1.0241: पुण्यमायतनं तेषां तत्र तैः कृतमुत्तमम्| SPra167.1.0242: अर्चनं नृत्यगीतं च नित्यमप्सरसां गणैः|| २४|| SPra167.1.0251: यत्रार्च्य देवाः सिद्धाश्च देवश्रेष्ठं महेश्वरम्| SPra167.1.0252: तपोधनाश्च तं शर्वमर्चयन्ति सनातनम्|| २५|| SPra167.1.0261: तत्तदायतनं दृष्ट्वा भवभक्ताः सुरासुराः| SPra167.1.0262: ते भवस्य प्रिया भूत्वा भवसालोक्यतां गताः|| २६|| SPra167.1.0271: उशीरबीजः शैलेन्द्रस्तत्राश्रमपदं महत्| SPra167.1.0272: तृणाङ्गागस्त्यशिष्यस्य देवदानवपूजितम्|| २७|| SPra167.1.0281: †तत्रायतनखण्डस्य मध्यमाशोकचम्पके†| SPra167.1.0282: पुण्यमायतनं दिव्यं त्रेताग्निसदृशं त्विषा| SPra167.1.0283: महानीलमयं तत्र लिङ्गं व्यामशतोच्छ्रितम्|| २८|| SPra167.1.0291: सिद्धाश्च चारणाश्चापि ये तं पश्यन्ति भक्तितः| SPra167.1.0292: न ते च्यवनधर्माणो भवन्ति भवतेजसा|| २९|| SPra167.1.0301: तस्मिन्नायतने दिव्ये तृणाङ्गः स महानृषिः| SPra167.1.0302: दक्षिणां मूर्तिमास्थाय स्तुवत्यार्तिहरं हरम्|| ३०|| SPra167.1.0311: उत्तरेण निरालोके भानुभासविवर्जिते| SPra167.1.0312: पर्वते मेरुसंकाशे देवदारुवनावृते|| ३१|| SPra167.1.0321: उत्तानपादपुत्रेण देवभक्तेन तेन वै| SPra167.1.0322: लिङ्गं देवस्य रुद्रस्य स्थापितं स्थिरकर्मणा|| ३२|| SPra167.1.0331: षड्व्यामशतमूर्ध्वं तल्लिङ्गं तु कनकामयम्| SPra167.1.0332: आदित्यमण्डलाभासं सिद्धगन्धर्वपूजितम्|| ३३|| SPra167.1.0341: ध्रुवस्तस्मिन्ध्रुवश्चैव तल्लिङ्गं ध्रुवमर्चयेत्| SPra167.1.0342: नित्यस्थायी वसत्येको ग्रहचन्द्रप्रवर्तकः|| ३४|| SPra167.1.0351: लिङ्गं यैस्तु गिरीशस्य दृष्टं दृश्यत एव वा| SPra167.1.0352: मोदन्ते दिवि तद्दृष्ट्वा ध्रुवा ध्रुवसमीपगाः|| ३५|| SPra167.1.0361: जैगीषव्येन मुनिना अस्ते †मह्यं† निकेतने| SPra167.1.0362: स्थापितं सुमहल्लिङ्गं देवदेवस्य शूलिनः|| ३६|| SPra167.1.0371: अशोकवनमध्यस्थं चन्दनस्यन्दनाकुलम्| SPra167.1.0372: वर्चसेन्द्रायुधसममिन्द्रध्वजमिवोच्छ्रितम्|| ३७|| SPra167.1.0381: यदर्चयति प्रीतात्मा जैगीषव्यो महानृषिः| SPra167.1.0382: नाट्योपहारैस्त्रैकाल्यं वृषनादैश्च भैरवैः|| ३८|| SPra167.1.0391: ननादोन्मत्तवच्चापि पुनः पुनरुदीरयन्| SPra167.1.0392: तोषयामास वरदं चन्द्रावयवभूषणम्|| ३९|| SPra167.1.0401: ये तु संस्थापितं लिङ्गमर्चयन्त्यम्बिकापतिम्| SPra167.1.0402: देवं दृष्ट्वानुमोदन्ते देवैस्तुल्याः प्रभावतः|| ४०|| SPra167.1.0411: देवत्वं च भवत्येव सांख्ययोगं च योगिनाम्| SPra167.1.0412: देवदानवयक्षाणां तस्मिंल् लिङ्गे महोत्सवः|| ४१|| SPra167.1.0421: †न तमृषयो देवापि न चलचामरमास्थिताः †| SPra167.1.0422: जैगीषव्यार्चितं लिङ्गं पश्यन्ति तपसान्विताः|| ४२|| SPra167.1.0431: नन्दने देवराजेन देवस्य भयमाहरत्| SPra167.1.0432: महदायतनं दिव्यं कृतं कीर्तिमता तदा|| ४३|| SPra167.1.0441: †भूतमण्डप† मध्यस्थं पुष्पितस्य सुगन्धिनः| SPra167.1.0442: भ्रमरैरुपगीतस्य सुस्वरैरिव सामगैः|| ४४|| SPra167.1.0451: तपनीयमयं तत्र लिङ्गं मणिशिलावृतम्| SPra167.1.0452: स्थापितं पुरुहूतेन व्यामायुतशतोच्छ्रितम्|| ४५|| SPra167.1.0461: देवगन्धर्वयोषिद्भिर्देवैश्चापि समावृतम्| SPra167.1.0462: अदित्याभिगतं दित्या शच्या शक्रेण च स्वयम्|| ४६|| SPra167.1.0471: विद्रुमस्फाटिकैश्चापि इन्द्रनीलमयैरपि| SPra167.1.0472: जालैर्जाम्बूनदैश्चापि बहुलैश्च समावृतम्|| ४७|| SPra167.1.0481: सर्जागुरुसुधूपेन गुग्गुलेन घृतेन च| SPra167.1.0482: इन्द्राण्या दीप्यमानेन धूम्रीकृतमनेकशः|| ४८|| SPra167.1.0491: त्रिदिवाधिपतिस्तत्र त्रिकालं त्रिदशेश्वरः| SPra167.1.0492: अर्चयत्यजमीशेशं सर्वभावपुरस्कृतम्|| ४९|| SPra167.1.0501: ये तत्पश्यन्ति रुद्रस्य महदायतनं सुराः| SPra167.1.0502: सर्वयज्ञफलं तेषां विदधाति महेश्वरः|| ५०|| SPra167.1.0511: क्षीरोदोदधिवेलायां वालिखिल्यैः कृतं स्वयम्| SPra167.1.0512: महदायतनं पुण्यं पुण्यश्लोकं सुरप्रियम्| SPra167.1.0513: तमालवनमध्यस्थं तमालवरगन्धिकम्|| ५१|| SPra167.1.0521: तस्मिंश्चन्द्रप्रभं लिङ्गं स्फाटिकं मणिरञ्जितम्| SPra167.1.0522: वालिखिल्यास्तमर्चन्ति दृढभक्ता महेश्वरम्|| ५२|| SPra167.1.0531: †साद्यः क्रूमन्दिः शूरश्च प्रतिभद्रान्तवान्तरः| SPra167.1.0532: वालिखिल्यैः समं सिद्धैः† चिरं गच्छन्ति मन्दिरम्|| ५३|| SPra167.1.0541: ये सुरासुरगन्धर्वास्तदायतनमागताः| SPra167.1.0542: पश्यन्ति वालिखिल्यैस्ते तपसा यान्ति तुल्यताम्|| ५४|| SPra167.1.0551: कैलासशिखरे रम्ये स्वर्णं तालवनं महत्| SPra167.1.0552: प्राकारेणार्कवर्णेन सुतोरणवतावृतम्|| ५५|| SPra167.1.0561: †पुष्पावृतं शिखन्दल† मुक्तासिक्ताप्रवालकम्| SPra167.1.0562: फलैरवनतैर्वृक्षैरमृतोपमगन्धिभिः|| ५६|| SPra167.1.0571: यक्षाः कमलपत्राक्षाश्छाययैव ग्रहोपमाः| SPra167.1.0572: यं नित्यमभिरक्षन्ति त्रिकालं सुसमाहिताः|| ५७|| SPra167.1.0581: †चतुस्तावं† च दीर्घं च स्फाटिकैः कारितं महत्| SPra167.1.0582: शुद्धाः सहार्चयन्ति यं भक्त्या परमया युताः|| ५८|| SPra167.1.0591: रम्भाद्यप्सरसो यत्र गन्धर्वाश्च सनारदाः| SPra167.1.0592: सामानि दिव्यगानेषु गायन्ते पारमार्थिनः || ५९|| SPra167.1.0601: †यत्रेभ्यपुरहासार्थः† सनन्दिः सगणेश्वरः| SPra167.1.0602: सह एकाक्षिपिङ्गेन विजहार रराम च|| ६०|| SPra167.1.0611: यैस्तदायतनं दृष्टं कुबेरस्य सुरासुरैः| SPra167.1.0612: सर्वतीर्थफलं तेषां ददात्येव त्रिलोचनः|| ६१|| SPra167.1.0621: वरुणस्यौदकायां तु महदायतनं शुभम्| SPra167.1.0622: महाराजतलिङ्गं च मेरुशृङ्गसमं महत्|| ६२|| SPra167.1.0631: अनघा मुनयो यत्र चन्द्रादित्यसमप्रभाः| SPra167.1.0632: अर्चयन्ति हरं भक्त्या बहुवर्षशतानि तु|| ६३|| SPra167.1.0641: गौरीसहायं सततमरुणस्तरुणो रविः| SPra167.1.0642: यत्रार्चयति तुष्टात्मा त्रिकालमुदकस्थितः || ६४|| SPra167.1.0651: वेदेषु यत्फलं प्रोक्तं वचोभिः सर्वतीर्थजम्| SPra167.1.0652: तदायतनमागत्य लभते तदयत्नतः|| ६५|| SPra167.1.0661: एतानि पुण्यायतनानि व्यास मया सुराणां तव कीर्तितानि| SPra167.1.0662: येषां तु नामग्रहणेन †तुल्यं दानाश्रयाद्यावयते† फलानि || ६६|| SPra167.1.0671: एतानि देवासुरपूजितानि गन्धर्वदिव्याप्सरसाकुलानि| SPra167.1.072: निशम्य कीर्तिं च यशः सुखं च मोक्षं च स्वर्गं च लभन्ति मर्त्याः|| ६७|| SPra167.1.0681: मनुष्यगम्यानि च यानि यानि कालेषु पुण्यायतनान्यवन्याम्| SPra167.1.082: मयोच्यमानानि पुनश्च तानि निबोध चेमानि सुपावनानि|| ६८|| SPra167.1.0691: तपनसदृशदृष्टिश्चारुचन्द्रार्धमौलिर् | SPra167.1.0692: भगनयननिपातः पातनः शात्रवाणाम्| SPra167.1.0693: सजलजलदवाहो वाहिनीनां प्रणेता | SPra167.1.0694: जयति जयनिधानं देवदेवः पिनाकी|| ६९|| SPra167.1.9999: इति स्कन्दपुराणे देवतायतनोद्देशो नाम ||