Skandapurāṇa Adhyāya 99 E-text generated on July 20, 2022 from the original TeX files of: Bisschop, Peter C. and Yuko Yokochi, eds. The Skandapurāṇa. Vol. V. Adhyāyas 96-112. The Varāha Cycle and the Andhaka Cycle Continued. Critical Edition with an Introduction & Annotated English Synopsis, in cooperation with Sanne Dokter-Mersch and Judit Törzsök. Leiden: Brill, 2021. (SP V) https://brill.com/view/title/59532 SP0990010: सनत्कुमार उवाच| SP0990011: स संप्रयातो धर्मात्मा नर्दमानो यथा घनः| SP0990012: सर्वलोकमयो देवो वराहो नन्दिवर्धनः| SP0990013: अपश्यत्सागरं चैव संप्राप्यातिमहाबलः|| १|| SP0990021: नर्दमानं यथा मेघं लीयमानं मृगेन्द्रवत्| SP0990022: नर्तकीमिव नृत्यन्तं वल्गन्तं चैव योधवत्|| २|| SP0990031: मण्डलैर्बहुभिश्चित्रैश्चरन्तं वसुधां तथा| SP0990032: नियुद्धकुशलं यद्वद्गदायुद्धविशारदम्|| ३|| SP0990041: तदा तं बहुधा चित्रमपश्यन्नन्दिवर्धनम्| SP0990042: - - - - - - - - - - - - - - - -|| ४|| SP0990051: स तमर्घेण देवेशं सर्वलोकमयं विभुम्| SP0990052: पूजयामास देवाश्च ऋषयो ये च संगताः|| ५|| SP0990061: स जयाय प्रगृह्यैनमनुमान्य महोदधिम्| SP0990062: निवर्त्य सर्वभूतानि प्रविवेश महार्णवम्|| ६|| SP0990071: विगाहमानः सक्रीडमर्णवं विबभौ विभुः| SP0990072: सरः सुमहदासाद्य यथा मत्तो महागजः|| ७|| SP0990081: संप्रविश्य सुदूरं च सो ऽदृश्यः समपद्यत| SP0990082: भूमिलेखावृतः सूर्यो यथा संपूर्णमण्डलः|| ८|| SP0990091: ततो ऽन्तर्जलमाविश्य क्षोभयानो महार्णवम्| SP0990092: जलचन्द्रकवद्व्यास अदृश्यत जलौकसैः|| ९|| SP0990101: तिमींस्तिमिंगिलांश्चैव तिमिंगिलगिलानपि| SP0990102: तथा वै तद्गिलानन्यान्हस्तिनो गर्दभानपि|| १०|| SP0990111: मकरांश्चैव शङ्खांश्च तथैवाश्वमुखानपि| SP0990112: तथा वै पक्षिसंकाशान्मानुषानपि चापरान्|| ११|| SP0990121: रथचक्रप्रकारांश्च सिंहव्याघ्रमुखानपि| SP0990122: शरभर्क्षविडालास्यान्मत्स्यान्बहुविधांस्तथा| SP0990123: त्रासयन्स महातेजा जगाम सुमहाबलः|| १२|| SP0990131: कुतूहलात्समाविश्य केचिदाघ्राय चैव हि| SP0990132: नश्यन्ति मत्स्या दीप्तास्याः शतशो ऽथ सहस्रशः|| १३|| SP0990141: स प्रदक्षिणमावृत्य दिव्यं हयशिरः शुभम्| SP0990142: क्षणान्मैनाकमध्येन गत्वा भोगवतीमपि|| १४|| SP0990151: वरुणस्य पुरीं गत्वा पयोनाथस्य धीमतः| SP0990152: पर्जन्यं दिग्गजं प्राप्य कृत्वा चापि प्रदक्षिणम्|| १५|| SP0990161: सुरभीपुरमासाद्य गां दृष्ट्वा चैव सुप्रभाम्| SP0990162: या क्षरन्ती सदा व्यास सुधाममृतमेव च|| १६|| SP0990171: क्षीरोदं तत्सरो दिव्यं फेनपा यत्र ते द्विजाः| SP0990172: तस्मिन्सरसि तत्पीत्वा पयो ऽमृतसमप्रभम्| SP0990173: पूजितः फेनपैः सम्यक्तां रात्रिं तत्र सो ऽवसत्|| १७|| SP0990181: उषित्वा तत्र सो ऽगच्छत्कङ्कस्य पुरमव्ययम्| SP0990182: वासुकेश्च पुरं प्राप्य तक्षकस्य च धीमतः|| १८|| SP0990191: ततः शेषस्य देवेशो विदितां रमणामिति| SP0990192: रम्यां मनोज्ञां दिव्यां च स्वर्गादपि तां वराम्|| १९|| SP0990201: श्रुत्वानन्तश्च तं राजा अर्घेण च स पूजयत्| SP0990202: प्रणम्य बहुमानाच्च उपामन्त्रयदव्ययः|| २०|| SP0990211: महत्कार्यमिदं देव कर्तव्यं त्रिदिवौकसाम्| SP0990212: भूयो वयं त्वया सार्धं करिष्याम यदीच्छसि|| २१|| SP0990221: तं पूजयानं मधुहा प्रीत्या परमया युतः| SP0990222: उवाच लोककार्यस्य न विघ्नं कर्तुमर्हसि| SP0990223: मा च कालो ऽयमुद्युक्तो दैत्यस्य न भवेदिति|| २२|| SP0990230: सनत्कुमार उवाच| SP0990231: ततो विसृज्य तं नागं रसातलमुपागमत्| SP0990232: तत्र सागरको दैत्यः सुप्रभो ऽन्तर्जलेचरः|| २३|| SP0990241: अपश्यत्तं तदायान्तं हिरण्याक्षपुरं प्रति| SP0990242: गात्रेषु देवान्सूक्ष्मांश्च वराहस्यान्ववैक्षत|| २४|| SP0990251: विस्मितश्चास्य रूपेण भयान्नैनमुपागमत्| SP0990252: तेजसा चापि विष्टब्धो दुरात्मा तस्य सो ऽसुरः|| २५|| SP0990261: आविवेदयिषुस्तस्मै हिरण्याक्षाय सो ऽत्वरत्| SP0990262: चक्रे वेगं प्रति पुरं वराहस्य तदाग्रतः|| २६|| SP0990271: स यातुकामो दितिजाधिराजं वराहरूपं तमनन्तमन्तकम्| SP0990272: जगाम दैत्याय स जीवितान्तकं यथानिलः प्रच्युतदाममाल्यवान्|| २७|| SP0999999: इति स्कन्दपुराण एकोनशततमो ऽध्यायः||