Skandapurāṇa Adhyāya 5 E-text generated on February 22, 2017 from the original TeX files of: Adriaensen, R., H.T. Bakker and H. Isaacson, eds. The Skandapurāṇa. Vol. I. Adhyāyas 1-25. Critically Edited with Prolegomena and English Synopsis. Groningen: Egbert Forsten, 1998. SP0050010: सनत्कुमार उवाच| SP0050011: तन्नैमिशं समासाद्य ऋषयो दीप्ततेजसः| SP0050012: दिव्यं सत्त्रं समासन्त महद्वर्षसहस्रिकम्|| १|| SP0050021: एकाग्रमनसः सर्वे निर्ममा ह्यनहंकृताः| SP0050022: ध्यायन्तो नित्यमीशेशं सदारतनयाग्नयः|| २|| SP0050031: तन्निष्ठास्तत्पराः सर्वे तद्युक्तास्तदपाश्रयाः| SP0050032: सर्वक्रियाः प्रकुर्वाणास्तमेव मनसा गताः|| ३|| SP0050041: तेषां तं भावमालक्ष्य मातरिश्वा महातपाः| SP0050042: सर्वप्राणिचरः श्रीमान्सर्वभूतप्रवर्तकः| SP0050043: ददौ स रूपी भगवान्दर्शनं सत्त्रिणां शुभः|| ४|| SP0050051: तं ते दृष्ट्वार्चयित्वा च मातरिश्वानमव्ययम्| SP0050052: आसीनमासने पुण्ये ऋषयः संशितव्रताः| SP0050053: पप्रच्छुरुद्भवं कृत्स्नं जगतः प्रलयं तथा|| ५|| SP0050061: स्थितिं च कृत्स्नां वंशांश्च युगमन्वन्तराणि च| SP0050062: वंशानुचरितं कृत्स्नं दिव्यमानं तथैव च|| ६|| SP0050071: अष्टानां देवयोनीनामुत्पत्तिं प्रलयं तथा| SP0050072: पितृसर्गं तथाशेषं ब्रह्मणो मानमेव च|| ७|| SP0050081: चन्द्रादित्यगतिं सर्वां ताराग्रहगतिं तथा| SP0050082: स्थितिं सर्वेश्वराणां च द्वीपधर्ममशेषतः| SP0050083: वर्णाश्रमव्यवस्थानं यज्ञानां च प्रवर्तनम्|| ८|| SP0050091: एतत्सर्वमशेषेण कथयामास स प्रभुः| SP0050092: दिव्यं वर्षसहस्रं च तेषां तदभियात्तथा|| ९|| SP0050101: अथ दिव्येन रूपेण सामवाग्दिङ्निरीक्षणा| SP0050102: यजुर्घ्राणाथर्वशिराः शब्दजिह्वा शुभा सती|| १०|| SP0050111: न्यायश्रोत्रा निरुक्तत्वगृक्पादपदगामिनी| SP0050112: कालबाहूर्वर्षकरा दिवसाङ्गुलिधारिणी|| ११|| SP0050121: कलादिभिः पर्वभिश्च मासैः कररुहैस्तथा| SP0050122: कल्पसाधारणा दिव्या शिक्षाविद्योन्नतस्तनी|| १२|| SP0050131: छन्दोविचितिमध्या च मीमांसानाभिरेव च| SP0050132: पुराणविस्तीर्णकटिर्धर्मशास्त्रमनोरथा|| १३|| SP0050141: आश्रमोरूर्वर्णजानुर्यज्ञगुल्फा फलाङ्गुलिः| SP0050142: लोकवेदशरीरा च रोमभिश्छान्दसैः शुभैः|| १४|| SP0050151: श्रद्धाशुभाचारवस्त्रा योगधर्माभिभाषिणी| SP0050152: वेदीमध्याद्विनिःसृत्य प्रवृत्ता परमाम्भसा|| १५|| SP0050161: तस्यान्ते ऽवभृथे प्लुत्य वायुना सह संगताः| SP0050162: तामपृच्छन्त का न्वेषा वायुं देवं महाधियम्|| १६|| SP0050171: उवाच स महातेजा ऋषीन्धर्मानुभावितान्| SP0050172: शुद्धाः स्थ तपसा सर्वे महान्धर्मश्च वः कृतः|| १७|| SP0050181: यस्मादियं नदी पुण्या ब्रह्मलोकादिहागता| SP0050182: इयं सरस्वती नाम ब्रह्मलोकविभूषणा|| १८|| SP0050191: प्रथमं मर्त्यलोके ऽस्मिन्युष्मत्सिद्ध्यर्थमागता| SP0050192: नास्याः पुण्यतमा काचित्त्रिषु लोकेषु विद्यते|| १९|| SP0050200: ऋषय ऊचुः| SP0050201: कथमेषा महापुण्या प्रवृत्ता ब्रह्मलोकगा| SP0050202: कारणं किं च तत्रासीदेतदिच्छाम वेदितुम्|| २०|| SP0050210: वायुरुवाच| SP0050211: अत्र वो वर्तयिष्यामि इतिहासं पुरातनम्| SP0050212: ब्रह्मणश्चैव संवादं पुरा यज्ञस्य चैव ह|| २१|| SP0050221: यज्ञैरिष्ट्वा पुरा देवो ब्रह्मा दीप्तेन तेजसा| SP0050222: असृजत्सर्वभूतानि स्थावराणि चराणि च|| २२|| SP0050231: स दृष्ट्वा दीप्तिमान्देवो दीप्त्या परमया युतः| SP0050232: अवेक्षमाणः स्वांल् लोकांश्चतुर्भिर्मुखपङ्कजैः|| २३|| SP0050241: देवादीन्मनुष्यादींश्च दृष्ट्वा दृष्ट्वा महामनाः| SP0050242: अमन्यत न मे ऽन्यो ऽस्ति समो लोके न चाधिकः|| २४|| SP0050251: यो ऽहमेताः प्रजाः सर्वाः सप्तलोकप्रतिष्ठिताः| SP0050252: देवमानुषतिर्यक्षु ग्रसामि विसृजामि च|| २५|| SP0050261: अहं स्रष्टा हि भूतानां नान्यः कश्चन विद्यते| SP0050262: नियन्ता लोककर्ता च न मयास्ति समः क्वचित्|| २६|| SP0050271: तस्यैवं मन्यमानस्य यज्ञ आगान्महामनाः| SP0050272: उवाच चैनं दीप्तात्मा मैवं मंस्था महामते| SP0050273: अयं हि तव संमोहो विनाशाय भविष्यति|| २७|| SP0050281: न युक्तमीदृशं ते ऽद्य सत्त्वस्थस्यात्मयोनिनः| SP0050282: स्रष्टा त्वं चैव नान्यो ऽस्ति तथापि न यशस्करम्|| २८|| SP0050291: अहं कर्ता हि भूतानां भुवनस्य तथैव च| SP0050292: करोमि न च संमोहं यथा त्वं देव कत्थसे|| २९|| SP0050301: तमुवाच तदा ब्रह्मा न त्वं धारयिता विभो| SP0050302: अहमेव हि भूतानां धर्ता भर्ता तथैव च| SP0050303: मया सृष्टानि भूतानि त्वमेवात्र विमुह्यसे|| ३०|| SP0050311: अथागात्तत्र संविग्नो वेदः परमदीप्तिमान्| SP0050312: उवाच चैव तौ वेदो नैतदेवमिति प्रभुः|| ३१|| SP0050321: अहं श्रेष्ठो महाभागौ न वदाम्यनृतं क्वचित्| SP0050322: शृणुध्वं मम यः कर्ता भूतानां युवयोश्च ह|| ३२|| SP0050331: परमेशो महादेवो रुद्रः सर्वगतः प्रभुः| SP0050332: येनाहं तव दत्तश्च कृतस्त्वं च प्रजापतिः|| ३३|| SP0050341: यज्ञो ऽयं यत्प्रसूतिश्च अण्डं यत्रास्ति संस्थितम्| SP0050342: सर्वं तस्मात्प्रसूतं वै नान्यः कर्तास्ति नः क्वचित्|| ३४|| SP0050351: तमेवंवादिनं देवो ब्रह्मा वेदमभाषत| SP0050352: अहं श्रुतीनां सर्वासां नेता स्रष्टा तथैव च|| ३५|| SP0050361: मत्प्रसादाद्धि वेदस्त्वं यज्ञश्चायं न संशयः| SP0050362: मूढौ युवामधर्मो वा भवद्भ्यामन्यथा कृतः| SP0050363: प्रायश्चित्तं चरध्वं वः किल्बिषान्मोक्ष्यथस्ततः|| ३६|| SP0050371: एवमुक्ते तदा तेन महाञ्छब्दो बभूव ह| SP0050372: आदित्यमण्डलाकारमदृश्यत च मण्डलम्| SP0050373: महच्छब्देन महता उपरिष्टाद्वियत्स्थितम्|| ३७|| SP0050381: स चापि तस्माद्विभ्रष्टो भूतलं समुपाश्रितः| SP0050382: हिमवत्कुञ्जमासाद्य नानाविहगनादितम्| SP0050383: व्योमगश्च चिरं भूत्वा भूमिगः सम्बभूव ह|| ३८|| SP0050391: ततो ब्रह्मा दिशः सर्वा निरीक्ष्य मुखपङ्कजैः| SP0050392: चतुर्भिर्न वियत्स्थं तमपश्यत्स पितामहः|| ३९|| SP0050401: स मुखं पञ्चमं दीप्तमसृजन्मूर्ध्नि संस्थितम्| SP0050402: तेनापश्यद्वियत्स्थं तं सूर्यायुतसमप्रभम्| SP0050403: आदित्यमण्डलाकारं शब्दवद्घोरदर्शनम्|| ४०|| SP0050411: तं दृष्ट्वा पञ्चमं तस्य शिरो वै क्रोधजं महत्| SP0050412: संवर्तकाग्निसदृशं ग्रसिष्यत्तमवर्धत|| ४१|| SP0050421: वर्धमानं तदा तत्तु वडवामुखसंनिभम्| SP0050422: दीप्तिमच्छब्दवच्चैव देवो ऽसौ दीप्तमण्डलः|| ४२|| SP0050431: हस्ताङ्गुष्ठनखेनाशु वामेनावज्ञयैव हि| SP0050432: चकर्त तन्महद्घोरं ब्रह्मणः पञ्चमं शिरः|| ४३|| SP0050441: दीप्तिकृत्तशिराः सो ऽथ दुःखेनोस्रेण चार्दितः| SP0050442: पपात मूढचेता वै योगधर्मविवर्जितः|| ४४|| SP0050451: ततः सुप्तोत्थित इव संज्ञां लब्ध्वा महातपाः| SP0050452: मण्डलस्थं महादेवमस्तौषीद्दीनया गिरा|| ४५|| SP0050460: ब्रह्मोवाच| SP0050461: नमः सहस्रनेत्राय शतनेत्राय वै नमः| SP0050462: नमो विवृतवक्त्राय शतवक्त्राय वै नमः|| ४६|| SP0050471: नमः सहस्रवक्त्राय सर्ववक्त्राय वै नमः| SP0050472: नमः सहस्रपादाय सर्वपादाय वै नमः|| ४७|| SP0050481: सहस्रपाणये चैव सर्वतःपाणये नमः| SP0050482: नमः सर्वस्य स्रष्ट्रे च द्रष्ट्रे सर्वस्य ते नमः|| ४८|| SP0050491: आदित्यवर्णाय नमः शिरसश्छेदनाय च| SP0050492: सृष्टिप्रलयकर्त्रे च स्थितिकर्त्रे तथा नमः|| ४९|| SP0050501: नमः सहस्रलिङ्गाय सहस्रचरणाय च| SP0050502: संहारलिङ्गिने चैव जललिङ्गाय वै नमः|| ५०|| SP0050511: अन्तश्चराय सर्वाय प्रकृतेः प्रेरणाय च| SP0050512: व्यापिने सर्वसत्त्वानां पुरुषप्रेरकाय च|| ५१|| SP0050521: इन्द्रियार्थविशेषाय तथा नियमकारिणे| SP0050522: भूतभव्याय शर्वाय नित्यं सत्त्ववदाय च|| ५२|| SP0050531: त्वमेव स्रष्टा लोकानां मन्ता दाता तथा विभो| SP0050532: शरणागताय दान्ताय प्रसादं कर्तुमर्हसि|| ५३|| SP0050541: तस्यैवं स्तुवतः सम्यग्भावेन परमेण ह| SP0050542: स तस्मै देवदेवेशो दिव्यं चक्षुरदात्तदा|| ५४|| SP0050551: चक्षुषा तेन स तदा ब्रह्मा लोकपितामहः| SP0050552: विमाने सूर्यसंकाशे तेजोराशिमपश्यत|| ५५|| SP0050561: तस्य मध्यात्ततो वाचं महतीं समशृण्वत| SP0050562: गम्भीरां मधुरां युक्तामथ सम्पन्नलक्षणाम्| SP0050563: विशदां पुत्र पुत्रेति पूर्वं देवेन चोदिताम्|| ५६|| SP0050571: संस्वेदात्पुत्र उत्पन्नो यत्तुभ्यं नीललोहितः| SP0050572: यच्च पूर्वं मया प्रोक्तस्त्वं तदा सुतमार्गणे|| ५७|| SP0050581: मदीयो गणपो यस्ते मन्मूर्तिश्च भविष्यति| SP0050582: स प्राप्य परमं ज्ञानं मूढ त्वा विनयिष्यति|| ५८|| SP0050591: तस्येयं फलनिष्पत्तिः शिरसश्छेदनं तव| SP0050592: मयैव कारिता तेन निर्वृतश्चाधुना भव|| ५९|| SP0050601: तस्य चैवोत्पथस्थस्य यज्ञस्य तु महामते| SP0050602: शिरश्छेत्स्यत्यसावेव कस्मिंश्चित्कारणान्तरे| SP0050603: स्तवेनानेन तुष्टो ऽस्मि किं ददानि च ते ऽनघ|| ६०|| SP0050610: वायुरुवाच| SP0050611: ततः स भगवान्हृष्टः प्रणम्य शुभया गिरा| SP0050612: उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा लक्ष्यालक्ष्यं तमीश्वरम्|| ६१|| SP0050621: भगवन्नैव मे दुःखं दर्शनात्ते प्रबाधते| SP0050622: इच्छामि शिरसो ह्यस्य धारणं सर्वदा त्वया| SP0050623: ननु स्मरेयमेतच्च शिरसश्छेदनं विभो|| ६२|| SP0050631: भूयश्चाधर्मकार्येभ्यस्त्वयैवेच्छे निवारणम्| SP0050632: तथा च कृत्यमुद्दिश्य पश्येयं त्वा यथासुखम्|| ६३|| SP0050641: विज्ञप्तिं ब्रह्मणः श्रुत्वा प्रोवाच भुवनेश्वरः| SP0050642: स एव सुतसंज्ञस्ते मन्मूर्तिर्नीललोहितः| SP0050643: शिरश्छेत्स्यति यज्ञस्य बिभर्त्स्यति शिरश्च ते|| ६४|| SP0050651: इत्युक्त्वा देवदेवेशस्तत्रैवान्तरधीयत| SP0050652: गते तस्मिन्महादेवे ब्रह्मा लोकपितामहः| SP0050653: सयज्ञः सहवेदश्च स्वं लोकं प्रत्यपद्यत|| ६५|| SP0050660: वायुरुवाच| SP0050661: य इमं शृणुयान्मर्त्यो गुह्यं वेदार्थसंमितम्| SP0050662: स देहभेदमासाद्य सायुज्यं ब्रह्मणो व्रजेत्|| ६६|| SP0050671: यश्चेमं पठते नित्यं ब्राह्मणानां समीपतः| SP0050672: स सर्वपापनिर्मुक्तो रुद्रलोके महीयते|| ६७|| SP0050681: नापुत्रशिष्ययोगिभ्य इदमाख्यानमैश्वरम्| SP0050682: आख्येयं नापि चाज्ञाय न शठाय न मानिने|| ६८|| SP0050691: इदं महद्दिव्यमधर्मशासनं पठेत्सदा ब्राह्मणवैद्यसंसदि| SP0050692: कृतावकाशो भवतीह मानवः शरीरभेदे प्रविशेत्पितामहम्|| ६९|| SP0059999: इति स्कन्दपुराणे पञ्चमो ऽध्यायः||